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मेडिकल उपचार संस्थान ओर उप्भोक्ता ( अंदर की बाते )

            मेडिकल उपचार संस्थान ओर उप्भोक्ता

( अंदर की बाते  )

महाराष्ट्र के जे जे होस्पितल के डॉ आतिश पारिख तथा ड्युटि पर एक महिला डॉक्टर को 20 मई (2018) के दिन एक शेख नामक महिला मरीज़ की मृत्यू के लिये ज़िम्मेदार मानते हुए उसके  परिवार वालो ने पीट दिया .ऐसी ही घटनाये मार्च  2017 मे भी हुइ जब धुले होस्पिटल के एक डॉक्टर  को 20 लोगो की भीड ने घायल कर दिया . नाशिक सिविल होस्पिटल के कर्म्चारियो को भी  पिछ्ले वर्ष  मार्च मे एक गर्भवति महिला की मृत्यु पर घयल केर दिया गया आरोप होता है डॉकटरो की लापरवाही.

प्रश्न है कि इस प्रकार से कानून हाथ मे लेने से डॉक्टर की गलती कैसे पकडी जा सकती है.जनता का आक्रोश सही भी हो सकता है पर उस्के लिये कुतर्क तो कही सहायक  नही हो सकता .जनता को यह जानना आवश्यक है कि अपनी बात को सही ढंग से रख्ने के लिये आंदोलन ओर तोड फोड केवल एक दिन का शोर गुल बन कर रह जाता है ,बाद मे केस का वास्तव मे होता क्या है किसी को उत्सुक्ता नही रह जाती ओर केवल भुगतने वाले ही जानते है कि कानून के धरतल पर वे क्या कर पाये.

अब इसके दूसरे पह्लू को देख्ना भी आवश्यक है –जब हम हल्ला बोल देते है कि अमुक महिला को होस्पिटल मे भरती करने  से मना कर दिया या फिर उसने सडक पर बच्चे को जनम दे दिया  -क्या कानून मे कही लिखा है कि होस्पिटल मरीज़ को भरती करने से मना नही कर सकता या दूसरे होस्पिटल मे रेफर नही कर सकता . यदि होस्पिटल मे बिस्तर  खाली नही है या अमुक बीमारी के इलाज की व्यवस्था नही है या आवश्यक उपस्कर उप्लब्ध नही है या विशेषज्ञ उप्लब्ध नही है तो होस्पिटल क्या करे.

हम डॉक्टरो की पैरवी कतई नही कर रहे परंतु सबूत समाप्त करने की भूल को रोकना चाहते है.

इस प्र्श्न पर वर्ष  1969 मे डॉ लक्ष्मण बाल कृष्ण जोशी बनाम डॉ  त्रिम्बक बापु गोड्बोले तथा अन्य (ए ऐ आर 1969 एस सी 128)  के मामले मे मरीज़ के साथ क्या व्यव्हार होना चाहिये इस्के लिये डॉकटर के कर्तव्ये निर्धारित किये थे-  

1.  डॉकटर निर्णय ले कि उसे मरीज़ का इलाज करना है या नही,इसके लिये उसे रोग को पह्चान केर उसके इलाज के लिये अपनी क्षम्ता तथा सुविधाये देखनी होगी.

2.  यदि इलाज करने का निर्णय  ले लिया तो यह तय करना  होगा कि क्या इलाज करना है

3.  जो सोचा था ओर बीमारी को जैसे जाना था वैसा ही इलाज किया जाये यह सुनिश्चित करना होगा.

सर्वोच्च न्ययलय के ऊपर दिये गये निर्देशो तथा उप्भोक्ता अदालतो की प्रक्रिया पर उप्भोक्ता अदालत की खंड्पीठ की पूर्व  सदस्य जज के अनुभव आप अवश्य जाने -    

 

सबसे बडा प्रश्न –

क्यो सफल नही हो पाते अधिक्तर मेडिकल असाव्धानी के मामले-

होता यह है कि हम तोडो.मारो .मीडिया को बुलाओ जैसी गर्म जोशी दिखा कर अंदर के वे सारे दस्तवेज़ नष्ट कर देने का अव्सर दे देते है जो कोइ गलती पकड्ने  के लिये ज़रूरी होते है . सर्वोच न्ययलाय के आदेश मे दिन प्रति दिन की फाईल की नोटिंग का महत्व स्पष्ट है  जिस्से यह पता चलता है कि बीमारी की क्या पहचान हुई ओर इलाज क्या किया गया. इसे ट्रीट्मेट हिस्टरी कहते है ओर परम्परा  के अनुसार इसे होस्पिटल का दस्तावेज मान कर मरीज़ को नही दिया जाता .मरीज़ को डिस्चार्ज समरी दी जाती है .मामला अदालत मे आने पर आदालते केस हिस्ट्री होस्पिटल से मांगती है ओर केस दाखिल होने से पेह्ले हंगामा करने पेर उन दस्तवेज़ो मे फेर बदल की सम्भवना से इंकार नही किया जा सकत.  सर्वेक्षण से यह देखा गया है कि अदालतों मे मेडिकल नेगलिजेंस के नाम पर  दर्ज होने वाले 50% मामले मेडिकल नेगलिजेंस के होते ही नहीं।जैसे – कोई बीमारी ठीक नहीं हो सकी तो उसे मेडिकल नेगलिजेंस कह दिया जाता है । किसी सत्तर साल के बुजुर्ग को जिसे पहले से ही ब्लड प्रेशर,सुगर आदि की समस्या है ओर तेज दवा नहीं दी जा सकती ,उसकी स्लो रिकवरी मे भी डाक्टर को जिम्मेदार मान लिया जाता है ।या फिर कभी कभी फीस देने से कतराने के लिए भी ऐसे आरोप लगा दिये जाते है ।बड़ी अदालतों का यह मानना है कि डाक्टर बीमारी ठीक करने का गारंटर नहीं होता । दूसरी बात , आपराधिक मामले के लिए आपराधिक मंशा का होना आवश्यक होता है जबकि मौत होने मे  डाक्टर की मंशा तो मर्डर नहीं हो सकती ।  जो मामले वास्तव मे असावधानी के होते है ,उन्हे ठीक से प्रस्तुत नहीं किया जाता । कभी इलाज से संबधी दस्तावेज़ नहीं होते ,कभी कभी तो हस्पताल मे इलाज करने वाले डाक्टर का नाम तक पता नहीं होता ।

एक्सपर्ट ओपिनियन उप्भोक्ता के लिये  एक समस्या- अमूमन लोगो को यह शिकायत होती है कि डाक्टर के विरुध उनके फैलो डाक्टर  एक्सपर्ट ओपिनियन नहीं देते । सबसे पहले इस भ्रम को दूर करना बहुत आवश्यक है । यह ओपिनियन आप स्वयं भी किसी डाक्टर से या किसी सरकारी हॉस्पिटल से ले सकते है। यदि ऐसा संभव न हो सके तो अदालत मे अपना केस दर्ज करके अदालत से ही एक्सपेर्ट ओपिनियन मगाने की प्रार्थना कर सकते है । अदालत किसी सरकारी हॉस्पिटल को एक्सपर्ट ओपिनियन के लिए ट्रीटमंट रेकॉर्ड भेज कर मगा सकती है । सरकारी हॉस्पिटल या कभी कभी मेडिकल काउंसिल भी अपनी ओपिनियन देती है । इसके लिए बीमारी से  संबद्ध विभाग मे  एक समिति गठित की जाती है तथा डाक्टरों की टीम आपके दस्तावेज़ देख कर अपनी राय देते है । यद्यपि एक्सपर्ट  ओपिनियन बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है तथापि आवश्यक नहीं कि  वही अदालत का फैसला बन जाए ।   अदालत एक से अधिक रिपोर्ट भी मगा सकती है तथा अपने विवेक के आधार पर निर्णये देती है

मेडिकल लिट्रेचेर भी एक मेहेत्व्पूर्ण दस्तावेज़ होता है. किसी डॉक्टर की निजि राय या कोइ प्रयोगात्मक लेख मेडिकल लिट्रेचर नही होता . मेडिकल जगत मे स्थापित मांनदंड ही मेडिकल लिट्रेचेर माने जा सकते है .उप्भोक्ता को इसकी जांनकारी नही होने के करण भी उसे लगता है कि उस्के साक्ष्य पर ध्यान नही दिया गया .

मरीज़ का तथ्य छुपाना सब्से घातक होता है.एक माम्ले मे कोस्मिक सर्जरी के लिये आई महिला ने डॉक्टर से यह छुपाया कि उसे ब्रेस्ट केंसर था ओर उस्की ब्रेस्ट सर्जरी हो चुकी है. डॉक्टर से ब्रेस्ट का साइज़ ठीक करने के लिये कोस्मिक सेर्जरी  के लिये कहा गया जो सफल्ता पूर्वक हो गयी.कुछ समय मे ही महिला को असह्निय  दर्द होने लगा जिस्का कारण यह था कि पह्ली सर्जरी के बाद कोस्मिक सर्जरि के लिये डेड हो चुके टिशुओ पर अलग तरह का ट्रीट्मेंट देना आवश्यक था जो तथ्य छुपाने के कारण नही दिया जा सका ओर इसे मेडिकल नेग्लिजेंस के केस की तरह मान लिया गया

डॉकटर्स के बचाव मे बीमा कम्पनिया- डॉकटर्स के बचाव मे बीमा कम्पनियो के आने से  भी उप्भोक्ता हताश होने लगा.किंतु सर्वोच्च न्ययलये ने तुरंत ही इस बात को स्पष्ट कर दिया कि बीमा कम्पनिया केवल बीमे की जांनकारी देंगी ,तथ्यो या मेरिट पर डॉक्टर अपना बचाव स्वयम करेंगे क्योकि बीमा कम्पनी को तथ्यो की जानकारी या इलाज की बारीकियो से भिज्ञ नही माना जा सक्ता. इस्लिये उप्भोक्ता को इसमे डरने की आवश्यक्ता नही है 

डॉ प्रेम लता

पूर्व सदस्य, उप्भोक्ता खंड्पीठ,नई दिल्ली

 

 

मेडिकल नेगलिजेंस कब मानी जा सकती है

·         जब किसी अंग को डाक्टर की लापरवाही से नुकसान हो जाए

·         जब रोग की ठीक पहचान न करने पर  गलत इलाज कर दिया जाए ओर बीमारी ठीक होने की बजाए बिगड़ जाए ओर फिर  डाक्टर बदलने पर तथा दवा बदलने पर इलाज लग जाए। 

·         जब इलाज मेडिकल स्थापित मानदंडो के हिसाब से न चुन कर प्रयोग करने की तरह नए तरीके से किया जाए ।

इन सब बातो  को परखने के लिए भी किसी डाक्टर की राय की आवश्यकता होती है क्योकि आम आदमी यह भी नहीं बता सकता कि इलाज ठीक था  या नहीं ।इसलिए कोई भी आरोप लगाने से पहले डाक्टरी राय आपके पास होनी चाहिए । 

·         कुछ बातो  के लिए डाक्टर की राय की आवश्यकता अलग से नहीं पड़ती –जैसे ओपरेशन करते समय किसी ओजार का अंदर रह जाना ,तकलीफ होने पर फिर से ओपरेशन करके केंची या रुई आदि को निकाला जाना –यह अपने आप मे सिद्ध बात होती है कि लापरवाही हुई ।इस प्रकार के मामले स्वयम सिद्ध माने जाते है .

·         यदि ऑपरेशन  करते समय लाइट चली गई ,जनरेटेर की व्यवस्था नहीं थी ,या समय पर नर्स उपलब्ध नहीं थी । ऑक्सीज़न की व्यवस्था ठीक नहीं थी आदि बातो के लिए भी लपेरवाही कही जा सकती है , इसमे अधिकतर होस्पिटल दोषी पाये गये है  । 

·         कुछ मामले सेवा मे कमी के होते है –जैसे हॉस्पिटल का रसीद ,डिस्चार्ज समरी या ट्रीटमंट रेकॉर्ड देने से मना कर देना,आवश्यक वस्तुओ की समुचित व्यवस्था न होना ।

मेडिकल नेगलिजेंस का पता लगाने के लिए आप क्या करे

·         डिस्चार्ज समरी के आधार पर पता करे कि रोग की पहचान ओर किया गया इलाज सही था ।

·         यदि ट्रीटमंट स्लो होता है तो मरीज की उम्र तथा  शरीर की स्थिति कैसी थी ।

·         रोगी को इलाज के लिए किस स्टेज  पर लाया गया –यदि बीमारी बड़ चुकी होगी तो इलाज मे भी देर लग सकती है ओर रोगी ठीक नहीं भी हो सकता ।

·         बीमरी से संबाधी लिटरेचर की मदद ले जिससे यह पता चल सके कि लक्षण क्या थे ओर इलाज क्या किया गया । कई बार कई बीमेरियों मे एक जैसे लक्षण दिखते है ,सही जानकारी के लिए लेब टेस्टिंग पर भरोसा करे ।

·         एक्सरे ओर लेब  टेस्टिंग तथा किए गए इलाज का मिलान करे ओर जाने इलाज ठीक था या नहीं ।

किन स्थितियो मे मेडिकल नेगलिजेस नहीं मानी जाती - 

·         मेडिकल साइंस मे स्थापित तरीको मे से यदि एक तरीका अपनाने पर भी रोग ठीक न हो रहा हो तो इसे मेडिकल नेगलिजेस नहीं कह सकते

·         रोग की पहचान ठीक की गई ओर इलाज भी ठीक चुना गया हो परंतु रोगी को सुगर आदि के कारण तेज दवा न दी जाने से ठीक होने मे देर लग रही हो तो इसे मेडिकल नेगलिजेस नहीं मानेंगे.

·         रोग से संबाधी उपस्कर न होने पर या खाली बेड न होने पर या संबद्ध एक्सपर्ट डाक्टर के उपलब्ध न होने पर रोगी को इलाज देने  से मना कर दिया जाए तो डॉक्टर या होस्पिटल  दोषी नही होगा ।  

                             

 

जब मेडिकल नेगलिजेंस का संदेह हो तो क्या करे- 

·         हस्पताल या डाक्टर का कुछ  बिल अवश्य चुकाए क्योकि पैसे न देने पर आप उपभोक्ता नहीं बनते। 

·         डिस्चार्ज समरी के साथ साथ ट्रीटमंट रेकार्ड भी मांगे ,न मिले तो दवाइयो के बिल पास रखे ।

·         संबधित बीमारी के लक्षणो तथा इलाज से संबधी कुछ जानकारी अपने पहचान के डाक्टर से या नेट की सहायता से ले ले ।

·         इलाज करने वाले डाक्टर का नाम भी जान ले ।

·         यदि इलाज के सही न होने का संदेह हो तो दूसरी राय  के साथ ही डाक्टर या हॉस्पिटल बदल दे ओर रोगी की तरफ ध्यान दे । रोगी का इलाज पूरा होने पर अनय बातो  के बारे मे सोचे ।

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